सड़ा हुआ कानून
अब तक अदालतों की कालाबाजारी पर से कवियों का ध्यान कुछ भटक सा गया था लेकिन अब और नही।
अदालतों के चक्करों में बीत जाती सारी उम्र।
न्याय के लिए यहां पे बीत जाती सारी उम्र।।
लगता फैसले के पहले इंसा मर जाएगा।
किंतु कोई आशा नहीं न्याय मिल पाएगा।।
अदालतों की कुर्सियां हैं धूल के चपेट में।
आम आदमी है पेशकारों की लपेट में।।
नही कोई बात न्यायाधीश को बताने दें।
अधिवक्ता के बिना जो कोर्ट में न आने दें।।
शर्मसार संविधान को किए हुए हैं वो।
20 या पचास रूपये में बिके हुए हैं जो।
न्याय- व्याय ,काले धंधे, बस यही सीख मिले।
20 या पचास रूपये देके जब तारीख मिले।।
ऐसा नहीं न्यायाधीशों को पता नही है ये।
लेखनी कवि की फालतू की कथा नही है ये।।
चूस चूस खून अधिवक्ता हुए मालामाल।।
(चक्कर काट आदमी होता रोज ही हलाल।)
तारीख पे तारीख यहां मिलती है सालों साल।
बेगुनाहों का यहां पे होता बुरा हाल है।
माफियाओं को जेलों में मिलती फ्राई दाल है।।
विष के समान है माहौल परिवेश का।।
ऐसा घिसा पिटा है कानून मेरे देश का।
ऐसे घिसे पिटे नियमों में सुधार कीजिए।
कानून के काले पन्ने फाड़ फेंक दीजिए।।
हर इक धारा में सुधार होना चाहिए।
जिनसे बेगुनाहों का उद्धार होना चाहिए।।
न ही टूट पाता घर न ही जुड़ पाता है।
जिंदगी का मोड़ न ही कहीं मुड़ पाता है।।
वंशो का विनाश भी हैं करती अदालतें।
जुर्म वाले रास्ते भी खोलती अदालतें।।
अत्याचार जब हद से ही बढ़ जाता है।
आम आदमी का भी पारा चढ़ जाता है।।
परिवार न्यायधीशों का ये बुरा हाल है।
केश खींच सालों साल करते हलाल हैं।।
आधी उम्र आदमी की यूं ही कट जाती है।
परेशान होके उसकी आंते फट जाती है।।
तब यह जाके निष्कर्ष कहीं आता है।
मिलता तलाक हर्जा खर्चा बंध जाता है।।
हर्जा खर्चा बंधे भेदभाव के आधार पर।
मेल या फीमेल लिंग भेद आधार पर।।
न्यायाधीशों का गणित मैं लाया जोड़ जोड़ हूं।
सारे न्यायाधीशों का दिखाता दृष्टिकोण हूं।।
परिवार जोड़ने में जोर ये लगाते हैं।
किंतु कोई परिवार जोड़ नही पाते हैं।
जोड़ने घटाने में ये मारते हैं छुट्टियां।
साल भर में आधा साल मारते हैं छुट्टियां।।
बैठते हैं कभी कभी रोज कहां बैठते।
आधा दिन ढले ये अदालतों में बैठते।।
अधिवक्ता न्यायाधीश क्या क्या बातें कर गए।
पता कुछ चला नही फैसले में मर गए।।
संविधानी भाषा आम आदमी में फेर है।
आम आदमी बस होता यहीं ढेर है।।
आम आदमी के साथ ये बड़ा अन्याय है।
उसकी बात कहे कोई ये कहां का न्याय है।।
संविधानी भाषा में फिर से सुधार हो।
अपनी बात खुद रखने का अधिकार हो।
या तो संविधान पाठ्यक्रमों में भी लाइए।
संविधान हर इस छात्र को पढ़ाइए।।
कानून देश का , हर व्यक्ति जानकर हो।
भारतीय सरकार का ये उपकार हो।।
अमन शुक्ला शशांक
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Absolutely right
ReplyDeleteThanku
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